स्मृति की वो दोपहर – जब एक विचार जन्मा
18 मार्च 2004। वह दिन जब जीवन की गति थम गई — और आत्मा ने पहली बार किसी और की पीड़ा को अपना बना लिया।
स्थान था कुलांजरी माता मंदिर, हाथरस का एक अत्यंत श्रद्धेय स्थल। मंदिर में भंडारे का आयोजन था — भक्ति, उल्लास और सेवा का वातावरण था। जैसे ही प्रसाद वितरण शुरू हुआ, सैकड़ों लोग लाइन में लगे थे। कुछ पुजारियों की स्तुति-ध्वनि थी, कुछ कड़ाह में खिचड़ी की गंध, और सबके चेहरों पर अपूर्व श्रद्धा की चमक।
तभी, मानो इस दृश्य के रंगमंच पर जीवन का एक अदृश्य निर्देशक एक दृश्य बदल देता है — एक वृद्धा ठोकर खाकर गिर पड़ीं। उनका माथा फट गया, रक्त बहने लगा। हम सब दौड़ पड़े, प्राथमिक चिकित्सा दी गई। मगर प्रश्न उठ खड़ा हुआ — “इतना बड़ा टेबल उन्हें दिखा क्यों नहीं?”
उत्तर ने हवा में मौन को जमा दिया — उनकी दृष्टि अत्यंत क्षीण हो चुकी थी। साथ आए नेत्र चिकित्सक मित्र ने उनकी आंखों की जांच की। यह जानकर हतप्रभ रह गए कि सिर्फ़ एक मामूली चश्मे या ऑपरेशन से उनका जीवन बदल सकता था। मगर उन्होंने इलाज क्यों नहीं करवाया?
वृद्धा ने जो कहा, वह किसी तीर की तरह अंतर्मन में उतर गया —
“बिटिया, अब उम्र हो गई है। 60 पार कर चुकी हूं। अब मरना ही है… बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाए, बस वही काफी है।”
वह वाक्य नहीं था, वह पीड़ा थी — वह उस समूचे समाज की आत्मग्लानि थी जो वृद्धों को बोझ समझ बैठा है। वह पीढ़ी जिन्होंने हमें चलना सिखाया, आज वे गिरती हैं और हम सब केवल उन्हें उठाते हैं — उन्हें सहारा नहीं देते, दृष्टि नहीं लौटाते।
जहाँ पीड़ा बोई जाती है, वहीं विचार जन्म लेते हैं
उस दिन — उसी क्षण — एक विचार का बीज हमारे अंतर्मन में बोया गया। यह बीज विचार नहीं, संकल्प था। उसी दिन से हमने तय किया कि अब किसी वृद्ध की दृष्टि केवल धुंधली नहीं रहेगी, समाज की संवेदना भी धुंधली नहीं रहेगी।
अक्टूबर 2005 में पहला नेत्र शिविर हाथरस में आयोजित हुआ। 500 वरिष्ठ नागरिकों की आंखों की जांच हुई। 15 मोतियाबिंद ऑपरेशन अलीगढ़ में कराए गए। ये केवल ऑपरेशन नहीं थे — ये एक पीढ़ी को दृष्टि लौटाने का यज्ञ था, मान-सम्मान का पुनर्निर्माण था।
धीरे-धीरे यह सेवा अभियान संवाद में बदला, संवाद से सोच बनी, और सोच से एक आंदोलन।
संवाद का संघर्ष – और बेटियों की पहचान
जब हमने समाज में संवाद आरंभ किया — तो सामने दीवारें थीं। जातिवाद, राजनीतिक द्वंद, भ्रमित विचारधाराएँ और नैतिक अपसंस्कृति ने युवाओं को सुन्न बना दिया था। हमने देखा कि जिस समाज की नींव बेटियाँ हैं — उसी समाज में उन्हें सबसे अधिक उपेक्षित किया जाता है।
दहेज, बाल विवाह, अपमान, और हिंसा — यह केवल समाचारों की सुर्खियाँ नहीं थीं, यह गांवों में बेटियों की दिनचर्या बन चुकी थी। हमने जब एक-एक घटना को जाना, सुना और देखा — तो हृदय में क्रांति नहीं, करूणा जगी। एक विचार प्रकट हुआ — "अगर समाज की आत्मा को बचाना है, तो उसकी बेटियों को जगाना होगा।"
शब्दों से नहीं, संस्कारों से हुई शुरुआत
कोई प्रचार नहीं किया, कोई मंच नहीं सजाया। एक छोटे से स्कूल में बेटियों को बुलाया। उन्हें रामायण के दोहे, संस्कृत के श्लोक, और गायत्री मंत्र सिखाए। फिर उन्हें बस इतना कहा:
"इन दोहों को अपने घर जाकर अपने पिता, भाई, दादा, चाचा को याद कराओ।"
यह एक मौन प्रयोग था। पर उसका प्रभाव तूफ़ान जैसा था — घरों में शब्द बदल गए, व्यवहार बदल गया, और सबसे महत्वपूर्ण — बेटियाँ केवल शिक्षित नहीं, संस्कारवान बन गईं।
बेटी जब संस्कार देती है — तो घर में कोई अपशब्द नहीं बोलता। बेटी एक नैतिक दर्पण होती है। समाज की चेतना उसकी आंखों से झांकती है। पिता की झुंझलाहट भी उसके सामने संयमित हो जाती है। माँ की पीड़ा भी बेटी के आँचल में छुप जाती है।
संकल्प से अभियान – जन्म हुआ एसबीएसएस का
रक्षाबंधन के एक दिन पहले, 2012 में — इस विचार को पहली बार सार्वजनिक रूप से स्वर मिला —
"सशक्त बेटी – सुंदर समाज"।
यह कोई NGO, संगठन या सरकारी परियोजना नहीं थी। यह विचार किसी संस्था से नहीं, पीड़ा से जन्मा था। एक वृद्धा की उपेक्षा, एक बेटी की करुणा और एक मां के मौन रोदन ने इसे जन्म दिया।
यह आंदोलन किसी व्यवस्था को चुनौती देने नहीं, स्वयं को जाग्रत करने के लिए था।
एसबीएसएस – स्वयं के विचार का प्रकाश
एसबीएसएस कोई नाम नहीं, यह तो प्रत्येक उस मन की ध्वनि है — जिसमें करुणा, सेवा और संकल्प जन्म लेते हैं। यह न तो किसी से प्रसिद्धि चाहता है, न समर्थन — यह तो केवल उस क्षण का प्रतीक है जब एक बेटी पहली बार अपने भीतर की शक्ति को पहचानती है।
यह विचार तब उत्पन्न होता है जब कोई ग्रामीण बालिका किसी वृद्ध को साड़ी पहनाती है, जब वह किसी बूढ़े को चश्मा देती है, या जब वह अपने भाई को अपशब्दों से बचने की सीख देती है।
गीत नहीं, यज्ञ है यह – गीता का प्रकाश लेकर
एसबीएसएस श्रीमद्भगवद्गीता से प्रेरित है। उसका उद्देश्य किसी को सुधारना नहीं, सबको अपने भीतर झाँकने का अवसर देना है। जैसे जामवंत ने हनुमान को उनके बल का बोध कराया — वैसे ही यह अभियान बेटियों को उनके अदृश्य बल की अनुभूति कराता है।
यह अभियान कोई आंदोलन नहीं, कोई दल नहीं, यह तो समर्पण से उत्पन्न हुआ एक यज्ञ है, जो बेटियों की अगुवाई में गाँव-गाँव फैल रहा है। अब बेटियाँ केवल रक्षा-सूत्र नहीं बाँधतीं — वे विचारों की रक्षक बन रही हैं।
अब बेटी चुप नहीं — समाज बदल रहा है
समाज तब तक मौन रहेगा जब तक बेटियाँ मौन हैं। पर जिस दिन बेटियाँ जाग जाएँगी — वह दिन होगा चेतना की सुबह।
अब बेटियाँ मंचों पर नहीं, खेतों में विचार बो रही हैं। वे स्कूलों में मंत्र सुना रही हैं, घरों में संस्कार लौटा रही हैं, और समाज को उसकी आत्मा से जोड़ रही हैं।
यह कहानी नहीं, चेतना है
यह कहानी उस वृद्धा की गिरावट से शुरू हुई — और अब हजारों बेटियों की आँखों में ज्योति बनकर चमक रही है।
"सशक्त बेटी – सुंदर समाज" अब नारा नहीं, यह समाज की वह चुप क्रांति है जिसमें कोई तख्ती नहीं, केवल समर्पण है। यह उस दीपक की तरह है जो बिना जले हुए भी उजाला कर देता है — क्योंकि यह भीतर से जलता है।
और जब कोई दीप भीतर से जलता है — तब अंधेरा चाहे जितना भी हो, उजाला रास्ता बना ही लेता है।
समापन में – एक विनम्र निमंत्रण
यदि आप कभी सोचें कि समाज में क्या बदला जा सकता है, तो उत्तर दूर नहीं — वह आपके घर में है, आपके गांव में है, आपकी बेटी में है।
उसे सुनिए। उसे जागरूक कीजिए। और फिर देखिए — कैसे एक विचार एक आंदोलन बनता है।
क्योंकि जब बेटी जागती है — तो केवल घर नहीं, पूरा समाज रोशन हो उठता है।
(एसबीएसएस: न अपेक्षा, न प्रचार — केवल समर्पण।)